इज़हार

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इश्क़ तुम्हारी बातों से कहां
अनकहे अल्फाजों से हुआ था

वो जब चार फीट गहरा स्विमिंग पूल देख के घबरा गए थे न तुम
और उस बार जब गरम चाय से जीभ जला ली थी अपनी
उस हल्की सर्द हवा में
जब यों ही बाहें फैला ली थीं तुमने
मानो मीलों दूर किसी को एक झप्पी देने का इशारा किया हो
या फिर शायद
खुद से ही, खुद के होने में खो गए थे तुम

इश्क़ तो तुमसे तब हुआ था

तुम्हारी चाल से
तुम्हारी बातों बातों में ही मुस्कुरा देने की आदत से
तुम्हारे रवैये से
जिसमें हर इंसान खुद को ढूँढ ही लेता है
तुम्हारी जिंदादिली से
तो तुम्हारी धीरे साँस लेती घुप परेशानियों से

उस खुद से ही सवाल करने वाली ज़िद से
उस रोज़ फिर हवा से खेल जाने वाले तुम्हारे बालों से

इश्क़ हुआ तो था
अचानक
आहिस्ता
और फिर मानो सैलाब ही आ गया हो

तुम्हारे होने में भी तुम थे
और जब नहीं थे
तुम थे
और भी ज़्यादा तुम थे।
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